कितना कुछ अनकहा: उपन्यासBihāra Grantha Kuṭīra, 1967 - 141 páginas |
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अपनी अपने अब आँखों आज आदमी आप आया इस उस उसका उसकी उसके उसने उसे एक ऐसा ओर और और फिर कभी कमरे कर करते करने कहा कहाँ का काठमांडू काम कि कितना कुछ अनकहा किया किसी की की तरह कुसुम के पास के लिये को कोई क्या क्यों गंगा गया था गये घर चाहता चाहिये छोड़ जगत जगत ने जब जा जाता जाने जिस जी जीवन जेल जैसे जो तक तुम तुम्हारे तुम्हें तो था था कि थी थीं थे दिन दिया दी दुःख देश दो नहीं ने नेपाल पति पत्नी पर पहले बहुत बाद भर भी मदन मन माया मुझे में मेरा मेरी मेरे मैं मैंने यह यहाँ या ये रहा था रहा है रही थी रहे रात रुपये लगता लगा लिया लेकिन वह वे शकुन्तला शराब शायद सब समय साथ साल से ही हुआ हुई हुये हूँ है है और हैं हो गया होता होती